Monday, December 13, 2010

एक आज़ाद परिंदा हूँ



तिनके सा मेरा ये जहां,
उड़के मैं जाऊं और कहाँ
तू है तो मेरा सब कुछ है
तेरे साए में जिंदा हूँ
इस खुले आसमाँ में जैसे,
एक आज़ाद परिंदा हूँ

तेरे आगे मैं कुछ भी नहीं
दुनिया ये तुझसे चलती है
तेरी दुआएं साथ रहें तो,
मेरी ये खुशियाँ पलती हैं
अपनी हर गुस्ताखी पर
मैं बेहद शर्मिंदा हूँ
इस खुले आसमाँ में जैसे,
एक आज़ाद परिंदा हूँ

शाम के ढलते मैं आ जाऊं
यह मेरी कोशिश रहती है,
अपने पर मैं वहाँ पसारू
जिस ओर हवा ये बहती है ।
लौट के मैं जो न आ पाऊं
तू ऐसे क्यों रोता है,
ऐसे जैसे कि कोई,
अपने किसी को खोता है
बिछड़ के तुझसे मैं तुझे रुलाऊं,
ऐसा न मैं दरिंदा हूँ
इस खुले आसमाँ में जैसे,
एक आज़ाद परिंदा हूँ

Monday, November 15, 2010

क्रांति की गूँज

The poem is a voice to all the young people of India, which asks them to resurrect the feeling of sacrifice and revolution.
अपनी धरती आज़ाद है और
हम आज़ाद मुल्क़ के वासी हैं। 
अपने दिल में फ़िर क्यों पलती,
एक ग़म और उदासी है। 

 कहाँ गयी वो सोच जिसे, 
हम आधारशिला कहलाते थे?
एक नयी सुबह की देख झलकियां,
अपना मन बहलाते थे। 
कहते थे कि लड़ जायेंगे,
वो अस्सी या इक्यासी हैं। 
क्रांति की धार को जंग न लगने देना। 
ये तेरा हथियार है रही। 
तोड़ दे इस चक्रव्यूह को,
ये क्रांति की गूँज है सिपाही। 
इस भ्रष्ट तंत्र से मुक्ति पाने को,
कुछ और भी सदियां प्यासी हैं। 

मेरा बचपन

The poem is on all those activities of childhood which we miss at later stages of life.

Friday, November 12, 2010

हमें पता है

कहते हैं कि तन मन धन
भारत माता को है अर्पण
कितना सच है ये हमें पता है
कितना सच है ये तुम्हे पता है
हमने देखा एक नया भारत
सन सत्तावन की कुर्बानी में
देश की हमने लाज बचाई
सरहद पे लड़े जवानी में
कहते हैं अब हमपे न
कोई आँख उठाएगा
संसद में बैठा हर कोई
देश की लाज बचाएगा
कितना सच है ये हमें पता है
कितना सच है ये तुम्हे पता है
सबने की वर्षों मेहनत
फिर संविधान बनाया था
विद्वानों ने तब जाकर
ये भ्रष्ट तंत्र दफनाया था
कहते हैं भारत पे हम अब
प्रजा का राज चलाएंगे
देश में साक्षरता और उन्नति
का हम दीप जलाएंगे
कितना सच है ये हमें पता है
कितना सच है ये तुम्हे पता है
आधा पैसा वो खाते हैं
फिर बाकी हम सब पाते हैं
जांच भी बैठे तो ये सारे
साफ़ बरी होके आते हैं
भ्रष्ट सभी यहीं बसते हैं
कहके सब हमपे हसते हैं
कहते हैं की न्याय मिलेगा
प्रयास अभी भी जारी है
बहुत हो गयी तानाशाही
अब प्रजातंत्र की बारी बारी है
कितना सच है ये हमें पता है
कितना सच है ये तुम्हे पता है

मेरी परछाई


the most faithful friend is the shadow. It will accompany you wherever you go.

मेरी मंजिल यहाँ नहीं है
मुझे और भी आगे जाना है
मुझे यहाँ पे नहीं है रुकना
न ये मेरा ठिकाना है
मुझे बहुत ही देर लगेगी
तू चाहे तो अभी लौट जा
तू चाहे तो अभी लौट जा

बुरे वक़्त में साथ न कोई
तू मेरे संग आई है
न तेरा कोई नाम पता
तू तो बस एक परछाई है
मुश्किलें अभी और हैं बाकी
तू चाहे तो अभी लौट जा
तू चाहे तो अभी लौट जा

न तू मेरी मंजिल है
और न ही तू मेरा कारवां
फिर क्यों मेरे साथ आ गया
जब पता नहीं मैं चला कहाँ
आगे क्या हो कुछ पता नहीं
तू चाहे तो अभी लौट जा
तू चाहे तो अभी लौट जा

तेरा ये पुत्र आभारी है


I love my nation and i express my love and faith in this way.

मेरी वो माँ है जिसका,
हिम जैसा है मस्तक। 
दूर से आती सूरज की किरणें,
उसपे देती हैं दस्तक। 
तू देवी है हर मंदिर की। 
तेरा पुत्र पुजारी है। 
मुझपे फ़ैले तेरे आँचल का,
तेरा ये पुत्र आभारी है। 

पावन गंगा की है सौगंध,
न तुझे कभी रोने देंगे। 
तेरी रक्षा में जाग रहे,
पहरेदारों को न सोने देंगे। 
तेरी जय जयकार करे,
वो शिक्षक या व्यापारी है। 
मुझपे फ़ैले तेरे आँचल का,
तेरा ये पुत्र आभारी है। 

तेरी मिट्टी में हम जन्मे,
हमको इस मिट्टी पे गर्व। 
सजा के तुझको रखेंगे,
हो मेला या कोई पर्व। 
तेरे कहने पे तत्पर हैं, 
ये पुत्र तो आज्ञाकारी है। 
मुझपे फ़ैले तेरे आँचल का,
तेरा ये पुत्र आभारी है। 

तेरे चरणों में शीष झुकाऊं,
तेरी जयजयकार करूँ। 
तेरी रक्षा में अस्त्र उठाऊं,
तेरे ही आँचल में मरूं। 
तुझको हम आज़ाद करेंगे। 
अब ये शपथ हमारी है। 
मुझपे फ़ैले तेरे आँचल का,
तेरा ये पुत्र आभारी है। 


गाँव शहर सब प्यासा है


The poem depicts the uncertainty of Mansoon in India

गाँव शहर सब प्यासा है। 
दिखती हर ओर निराशा है। 
जब तू बरसे बिन रोके तो,
दिखती बस हरियाली है। 
पुष्प पेड़ सब बड़े हो गए,
हर उपवन में माली है। 
अब धरती उगलेगी सोना,
हम सब की यही आशा है। 

तू हमसे जो रूठ गया,
तो ये धरती अब रोती है। 
बच्चे तो खाते हैं लेकिन,
मां तो भूखी सोती है। 
खेत भी हैं सूखे पड़े,
फ़िर क्यों तेरा तमाशा है। 

इस बरस तो तू ऐसा बरसा,
अपना घर तो टूट गया। 
पानी ही पानी दिखता है,
सब कुछ पीछे छूट गया। 
क्या ये तेरा नया रूप है,
अपनी ये जिज्ञासा है। 

गाँव शहर सब प्यासा है। 
दिखती हर ओर निराशा है।