Thursday, January 06, 2011

मेरी उड़ान


ख्वाहिशें कुछ ऐसी हैं,
कि आसमां में मैं उड़ जाऊं,
बादलों को मैं छू लूँ
और इन्द्रधनुष के रंग पाऊं।
आसमान में घर हो मेरा,
परिंदों संग हो वहाँ बसेरा।
उड़ती पतंगों से पूछुंगा
कि तेरी है डोर कहाँ।
आसमान से पूछूँगा मैं,
है तेरा ये छोर कहाँ।
दिन ढलने पर भटक न जाऊं,
इसी बात से डरता हूँ ।
फिर यही सोच कर मैं रह जाऊं,
कि ऐसी ख्वाहिश क्यों करता हूँ।
इस डर से मैं उड़ न पाऊं,
ना ऐसी मजबूरी है।
मंजिल को पाने के लिए,
अपनी तैयारी पूरी है।




मुझसा न महफूज़ कोई

उस हिम कि शीतल बाहों में,
गंगा जमुना कि राहों में,
पर्वत के फैले पहरों में,
गाँव, गली और शहरों में,

मुझसा महफूज़ कोई
वो वीर जवानों कि कुर्बानी,

सौ सदियाँ जिनकी रहें दीवानी,

जब तोड़ा था ज़ंजीरों को,

और चलने दी थी मनमानी,
जगती दिन रात निगाहों में,
इस स्वर्ग सी तेरी पनाहों में,
मुझसा महफूज़ कोई
चंद्रशेखर, गांधी और भगत सिंह
जैसी जन्मी हस्ती जहां पे,
उस धरती को हर बार मैं चूमूं,
हर बार मैं चाहूँ जनम वहाँ पे
मंदिर में और मीनारों में,

सेना कि खड़ी दीवारों में,

मुझसा महफूज़ कोई